याद आता है बचपन और रेल - यात्रा का रोमांच . और साथ ही वो बचकानी ख़ुशी भी जो यात्रा के दौरान रेल की खिड़कियों के पास बैठने और बाहर खुले आकाश में झाँकने से मिलती थी .नदियों की लहरों को गिनना , पहाड़ों की कतारों को निहारना , हवा में कागज़ के टुकड़े को उड़ाना , तैरते हंस , खिलते कमल , गाँव - झोंपड़ी , ग्वाले - गाय गोया भारत की प्रकृति से सम्पूर्ण साक्षात्कार कराती थी वो रेल यात्रा . ... और हाँ जब रेल किसी पुल पर से गुजरती थी तो वो घर्रर ,, घर्रर ,, की डरावनी , रोमांचक आवाज़ . सब कुछ याद है . पर अब , इस दौर के बच्चों की आँखों को फुरसत कहाँ जो इस खूबसूरती का दीदार करें . पिछले दिनों इलाहाबाद से गुजरती मेरी रेल गंगा के ऊपर से गुजरी तो मैंने अपने बेटे को आवाज़ दी ..'' आओ , खिड़की के पास , देखो नदी और उसके ऊपर पुल और पुल के ऊपर से गुजरती ये रेल ... पर ये क्या वो बिलकुल निर्लिप्त रहा मेरी पुकार से और ''टेबलेट'' पर गेम खेलता रहा . सोचने पर मज़बूर हो गई कि क्या आजकल के बच्चे को प्रकृति से जरा भी स्नेह न रहा ? अगले ही पल मिनी हिन्दुस्तान का विशेषण पाने वाले वाले रेल की बोगी पर जब मैंने अपनी नज़रें दौड़ाई तो लगभग सभी बच्चे जो किशोर पीढ़ी या युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते नज़र आ रहे थे वे मोबाइल , हेडफोन , लेपटॉप और टेबलेट में मशरूफ थे . प्रकृति के लिए किसी के पास वक्त नहीं.... ? दुःख हुआ ये देखकर कि तकनीक ने बच्चों को रोबोट में बदल दिया है . ऐसा लगा मानो प्रकृति माँ भी मेरे काँधे पर सर रखकर सुबक रही है कि क्यों आज कल के नौनिहाल संवदनाओं की भाषा नहीं समझते . क्यों वो एक रोबोट की तरह सिर्फ मशीन का कमांड मानते हैं . अब प्रकृति को कौन बताये कि इस दौर के बच्चे के दिलों - दिमाग एक छोटे से डिब्बे में कैद होकर रह गए हैं , अब वो डिब्बा मोबाइल हो या लैपटॉप क्या फर्क पड़ता है , कैदखाना तो कैदखाना है . ये यन्त्र बच्चों को खुद से बाहर कुछ भी सोचने की इजाजत नहीं देते . तभी तो बच्चे प्रकृति के सौंदर्य का रसास्वादन करने के बजाय एक फैंटेसी में खोये रहते हैं . उन्हें कौन बताये कि काल्पनिक दुनिया एक भूलभुलैया से ज्यादा कुछ भी नहीं . सोचती हूँ ये जो आजकल के बच्चे हेडफोन कानों में ठूँसकर '' हूप - हॉप '' सुनते रहते हैं , क्या उन्होंने कभी कोयल की कूक , पत्तों का सरकना , बादलों का गरजना , बूँदों की रिमझिम , गौरैया की चीं - चीं सुना भी है .....?? प्रकृति चित्रकार ही नहीं संगीतकार भी है . प्रकृति से बेहतर सुरीला संगीत किसी के पास है क्या भला ?हमारे बच्चे कब समझेंगे कि जो अपनी प्रकृति से अलग हो जाते है वो मिट्टी में मिल जाते हैं ....... खत्म हो जाते हैं .