समय की झंझा में

समय की झंझा में जीवन के पात बिखर गये
मैं था ‚ तुम थी चाँद और बदली भी वही थी
पर न कसक थी‚ न आग्रह था
न कोई उन्माद था‚ न कोई अभिव्यक्ति थी
तुम भी चुप थी‚ मैं भी चुप था
एक अव्यक्त लकीर थी
जो जोड़ती थी हम दोनो को
वो बीच से मिट गयी थी
काश! कोई ऐसी लेखनी होती‚
जो उस मिटी लकीर में स्याही भरकर
उसे पूरा कर देती
वो कौन सी त्वरा थी
जिसमें हम मिल गये थे
वो कौन सा ज्वार था
जो हमें विलगा गया
आज भी एक टीस मेरे हृदय पटल को
दर्द से सिहरा जाती है
वो कौन सी खता थी मेरी
जो तुम होकर भी मेरी नही हो


लेखक परिचय :
दिलीप कुमार सिंह
फो.नं. -9179715234
ई-मेल - [email protected]
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