अध्यात्म की पाठशाला में धर्म की भूमिका

           जरा ठहरो ! अध्यात्म की पाठशाला में धर्म की भूमिका एक उपकरण की तरह है। सभी उपासना पद्धतियाँ मात्र उस अनुभूति तक पहुँचने की सीढ़ियाँ हैं। विचारकों और ब्लागरों की हत्या आग में घी डालकर उसे बुझाने की असफल कोशिश है। कोई भी धर्म पद्धति अंतिम और सर्वश्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकती। इसी प्रयास में धार्मिक असहिष्णुता का जन्म होता है। किसी की आलोचना से आस्था खंडित होती है तो यह हमारी मानसिक अपरिपक्वता की निशानी है। यदि मेरी निष्ठा अद्वितीय है, तो  किसी के आलोचना से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। यह संसार तो बहुल विचारधाराओं का संगम है। ऐसा तो होता रहेगा- "हाथी चले बाजार‚ कुत्ता भोंके हजार"- हमारी निज श्रद्धा चंद शब्दों की चोट से बिखरनी नहीं चाहिए। धर्म मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला है। प्रत्येक को उसके स्वधारा के साथ बहने दिया जाय क्योंकि किसी भी विचार की हत्या असंभव है। धर्म का समाजीकरण और वैश्वीकरण करना एक खतरनाक अवधारणा है। इससे आप विश्व के नित नूतन ज्ञान प्रवाह की धारा को बाधित करते हैं। शाश्वत शब्द केवल-"परिवर्तन" है। न सृष्टि चिरस्थायी है‚न सृष्टि का कोई विचार चिरस्थायी है। इसलिए धर्म को विचारों के वेग में बहने दीजिए कोई असहिष्णुता की दीवार मत खड़ी कीजिए। सागर की तरह हर लहर को पी जाइए। आपके अस्तित्व को कोई नहीं मिटा सकता। क्योंकि सृष्टि ने आपके अस्तित्व को स्वीकार लिया है- वसुधा के मानव आप सभी का धन्यवाद!


लेखक परिचय :
दिलीप कुमार सिंह
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