सौ में एक

एक बार की बात है| एक गुरु सौ वर्ष के हुए तो उन्होंने तय किया कि अब योग समाधि लगाकर देह त्यागना है| लेकिन इससे पहले आश्रम का उत्तराधिकारी घोषित करना बाकी था| गुरु की सेवा में बीस वर्षों से एक शिष्य पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ जुटा था| गुरु ने उसे आज्ञा दी कि वह पहाड़ स्थित आश्रम से नीचे तराई में जाए और आध्यात्म की राह पर चलने के इच्छुक और तत्पर सौ युवकों को लेकर आए| शिष्य गुरु को प्रणाम करके चला|

मार्ग में उसके मन में कई प्रश्न उठे| मन में आया कि गुरु मुझे ही उत्तराधिकार देंगे तो मेरे पीछे इतने शिष्य और सहयोगी छोड़कर क्यों जा रहे हैं? लेकिन गुरूजी ने कहा है तो गलत होने का प्रश्न ही नहीं उठता|

आखिरकार शिष्य नीचे तराई में आकर सौ युवकों को एकत्र करके आश्रम के लिए रवाना हो गया| मार्ग में उसने देखा कि एक राज्य में मातम मचा था| पता चला कि राज्य की अस्सी कन्याओं की बारात को ले जा रहा एक जहाज समुद्र में डूब गया है| राजा ने घोषणा कर दी कि जो उन कन्याओं से विवाह करेगा, उसे अपार संपत्ति मिलेगी| यह सुनते ही सौ में से अस्सी युवक शिष्य का साथ छोड़ विवाह करने चल पड़े|

बचे हुए बीस युवकों में से उन्नीस युवक एक-एक कर कठिनाइयों से हार मानकर लौटते गए| जब शिष्य अपने गुरु के पास पहुंचा तो उसके साथ मात्र एक युवक था| जाते ही उसने गुरु से कहा- ‘गुरुवर, शुरू में मेरे मन में कई सन्देह उठ रहे थे, पर अब मैं समझ गया आपने क्यों सौ लोगों को लाने के लिए कहा था| मैं यह जान गया हूँ कि मंजिल की ओर निकलते सौ हैं, पर पहुंचता एक ही है| 


लेखक परिचय :
लक्ष्मी जैन
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