बदलो

कैसी हो
किस मिट्टी की बनी हो
क्यों सुन-सुन कर भी
तुम्हारे कान पकें नहीं?

 à¤à¤• ही धुन रटते-रटते
तोता बन चुकी हो
क्यों कुछ नया सीखना
नहीं चाहती तुम?

हर पल हर साल बदलता है
तुम कब बदलोगी?
बस अब और नहीं
बहुत हो चुका
झूठा बदलाव।

अब इतना बदलो कि
आज तक दोहराई
जाने वाली सारी
धुनें, समाज की संरचना
बदल जाये।

इतनी सक्षम बनों कि
परिवार
खुद जबरजस्ती
कन्या जनवाये।

इतनी निर्भर बनो कि
सारी हिदायतें रोक-टोक
हमेशा के लिए
मिट जाये।

इतनी अनुभवी बनो कि
मर्दों की निगाह
पढ़ सको
जिससे फिर कोई
दामिनी
ना बन जाये।


लेखक परिचय :
पूजा प्रजापति
फो.नं. -
ई-मेल - [email protected]
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