मीठी यादें

अक्सर स्कूल आते-जाते उस गढ्ढे पर मेरी नजर पड़ ही जाती थी। हम जब भी उधर से गुजरते, तो वह एक बाधा-सा प्रतीत होता। घर से स्कूल की दूरी यही कोई किलोमीटर भर रही होगी। दोस्तों के साथ पैदल स्कूल जाने का आनन्द ही कुछ और था और आनन्द दुगुना तब हो जाता जब पहुँचने जा रास्ता शॉर्टकट निकाल लिया गया हो।

रास्ते में पड़ा वो गढ्ढा, जाने क्यों, उस ओर ध्यान स्वतः खींच ही जाता था। याद है मुझे जब हमारा स्कूल गर्मियों की छुट्टियों के लिए बंद होने वाला था, स्कूल सत्र का आखिरी दिन था, हम सभी मित्र ख़ुशी से घर लौट रहे, उसी शॉर्टकट वाले रास्ते से जिसे हमने खुद ही ढूंढ़ निकला था।रास्ते में पड़ा वो गढ्ढा, जिसे कूड़े-करकट से भर दिया गया था, आज बहुत ही गन्दा दिखा।वक़्त बिता, छुट्टियाँ खत्म। नये सत्र की शुरुआत, मन में उत्साह, नयी कक्षा में जाने की उमंग लिये, घर से निकले। 16 जून, स्कूल का पहला दिन।स्कूल जाते वक़्त रास्ते में मेरी नज़र आदतन उस गढ्ढे पर पड़ी। अरे! अब तो नजारा बदल चुका था, बारिश ने उसे अपने जल से उसे भर दिया था। अब वह भी समतल- सा लगने लगा था। उसमें भरे कचड़े भी अब बह चुके थे। वह अब एक छोटा-सा जलकुंड बन चूका था। यह देख, मन में तुरंत ही विचार आया कि मैं वापिस घर जाते वक़्त यहाँ जरुर खेलूंगी।

हुआ भी ऐसा ही, स्कूल से घर जाते वक़्त, जब हल्की-हल्की बारिश हो ही रही थी, मैं अपने बस्ते जो किनारे कर, जूते-मोज़े खोल, उस गढ्ढे में अपने पैरों को डाल, खेलना शुरू कर दिया।मुझे देख मेरे मित्र भी वहाँ हो लिये। हों भी क्यों न?... प्रसन्नता में बड़ी मादक महक होती है, जो अपनी सुरभि से सारे परिवेश में ताजगी भर देती है। जब खुशियों की शोभायात्रा निकलती है तो खिलखिलाते हुए सहयात्री भी जुट ही जाते हैं। क्योंकि  उल्लास का काफिला बनते देर नहीं लगतीये बातें तो बचपन की थीं, जो मुझे मात्र आनन्द प्राप्त करने के साधन से लगते थें। लेकिन अब जब कभी विचार करती हूँ, तो एक शोर, द्वेष, भ्रम, कोलाहल मन को विचलित करता है। यह विचार कि क्या जीवन रूपी राह में आये ये गढ्ढे यूँही खाली रह जायेंगे, क्या हम यूँही इनमें अवसाद रूपी कूड़े-करकट  डालते रहेंगे।सोचकर परेशान होने लगती हूँ कि जीवन में जो एक अथाह खालीपन, नीरसता, अवसादों का कचड़ा भरा पड़ा है,खाली उस गढ्ढे की तरह, जो सालों भर यूँही सुखा पड़ा रहता है, बस इसी इंतज़ार में कि कब प्रेम रूपी ज्ञान की वर्षा हो और संग अपने ये सारी अज्ञानता रूपी गढ्ढे में पड़े कचड़े को बहा ले जाए।

वो नज़ारा स्वतः अपनी ओर आकर्षित करता जब वर्षा का जल धरती पर गिरते ही सबसे पहले दौड़ती है उन गढ्ढों को भरने के लिए जो कब के खाली पड़ थे। सदा के लिए कुछ खाली नहीं होता। इसीलिए तो कहने को जी चाह.....

सैलाब न सही, फुहारें तो होंगी,
उम्मीद के गलीचे पे सितारें तो होंगी,
देखो तो भर कर बाँहों में रोशनी,
चाँद न सही,जुगनू की कतारें तो होंगी।।


- मनोज कुमार सैनी
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