नारी-चीर हरण

हाँ अबला!
सुनते तो सब हैं
सड़क के उस पार से आती,
तेरी चित्कारें
मगर धारण है यहाँ
भीष्म मौन
गरल के घूंट पिते बेबस
भीम-अर्जुन
वचनों के खूंटे से बंधा
धर्मराज
दुर्योधन के कर्ज में डूबा,
दानवीर कर्ण
दिन दहाड़े होता है यहाँ,
स्त्री हरण
सरेआम सड़क पे दुषासन हाथों
चीर-हरण
कोई ‘हरि’ नहीं इस ‘कलयुग’ में
अबला अब जाये भी तो
किस षरण
इस हवसी समाज में तो
हो गया बेचारी का अब 
जीवन मरण
खुद को सभ्य कहलाने वाला
यह दुर्योधन समाज
नहीं चाहेगा अब कोई
उसका वरण
कह देगा
अब हर कोई
वो तो सड़क पे
लुटी है
क्या अपने घर की कोई
इज्जत नहीं है?
अपना कर उस कलमुंही को
नहीं अपने कुल पे कोई
कलंक लगाउंगा!
हे सभ्य समाज के सभ्य
पुरूष!
तुमसे कभी ‘‘पुन्नू’’ की कलम
करना चाहेगी बस एक
सवाल-
वो तिरस्कृत है
मगर क्यूं?
लूटा जिस समाज ने
उसी ने ठुकराया।
धिक्कार है उस सभ्य
समाज को!!


लेखक परिचय :
पूनम चन्द गोदारा
फो.नं. ---
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