माता-पिता के प्रति बदलता नजरिया !

जिसके ऑचल की छॉव में बचपन के दिनों का सूरज रोज निकलकर शाम डलते ही डूब जाता था, गमों के साये भी आसपास भटकने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, तेज धूप की तपन भी ऑचल की छॉव के सामने टिक नहीं पाती थी, भूख से बेहाल बचपन माँ के दूध से खिलखिला जाता था, माँ की भूख और माँ के गमों से अनजान बचपन बस माँ की ममता और माँ के दुलार से ही परिचित था, पर बचपन यह नहीं जानता था कि माँ की परवरिश में बीता बचपन माँ के खून और पिता के पसीना से सींचकर बडा हुआ है, इसी दौरान बडे भाईयों की डाट फटकार यह साबित जरूर करती थी कि घर की चार दीवारी के बीच रहने वाले भाई-बहन एक ही पेड के फूल हैं, जिनका रंग अलग हो सकता है पर उनकी खुशबू अलग नहीं हो सकती है.
माँ की ममता और पिता के दुलार के सामने कोई गम जरा भी टिकने की हिम्मत नहीं कर सकता था, समय चक्र के साथ रिश्तों में कडवाहट इस बात का एहसास जरूर कराती होगी कि हम उस माँ के जिगर के टुकडे हैं, जिसने हमें अपने खून और पसीना से सींचा है,फिर भी हम अनजान हैं कि वो माँ जो अपनी भूख और प्यास से अनजान होकर तेज धूप की तपन को अपने ऑचल की छॉव से तरबतर कर देती थी, वारिस के क्षणों में अपने ऑचल को फैलाकर वारिस के बूंदों से भी महफूज रखती थी, रास्ते की दूरियॉं अपनी गोदी में बैठाकर कम कर देती थी, आज उसी माँ के दर्द को समझने वाला कोई नहीं है, उसकी बातों को समझने और सुनने वाला कोई नहीं है, उसकी हर बात का जबाब झुंझलाकर देना लोगों की आदतों में शुमार हो चुका है, क्या इसे हम इस देश की विडम्बना ही कहेंगे कि जिस माँ के खून और पसीना ये शरीर बना है, आज वही शरीर उसको सहारा देने के बजाय उसकी समझदारी भरी बातों से अनजान हो रहा है, आखिर क्यों, जिन्होंने अपनी सारी खुशियां आपके बचपन से लेकर आपके समझदार होने में न्योछावर कर दी जिनसे हमारे शरीर का अस्तित्व आज समाज के सामने खडा है समाज की अच्छाई और बुराईयों को समझने हेतु सक्षम हुआ है उनके आघात प्रेम की स्वच्छ‍ तस्वीार का रूप लेकर इस दुनिया में हमारा उदय हुआ है
नौ माह गर्व में पलने से लेकर बचपन के दिनों की अठखेलियां उन्हें भूले नहीं भूलती है, उनकी आंखों के सामने हमारे बचपन के दिनों की तस्वी‍र हटने का नाम नहीं लेती है, जिनकी हर सांस में हमारी सफलताओं की गाथा गुंजन करती हुई नये रास्तों का निर्माण करती हुई सफलताओं के दरबाजे से गुजर जाती है,जिनके खून से हमारे जीवन की नींव रखी गई हो क्या हम उन्हें मात्र ये बहाना करके भूल गये है कि उनकी सेवा या देखभाल करने का समय नहीं मिल पाता है, या हम अपने कर्तव्य के पालन में दूर रहते हैं,ऐसी बातों से हम अपनी जिम्मेदारी से बचने की कसम खा बैठे हैं, या फिर हम अपनी समझदारी भरी बातों से अपना जी चुराने में लगे हुए हैं.
वो लोग जिन्होंने कभी आपकी खुशी के सामने अपने गमों का इजहार नहीं किया, आपकी आकांक्षाओं को हर स्तर पर मजबूती प्रदान की,आज उन्हीं के लिए हमारे पास समय नहीं है, आखिर क्यों क्या आज हम अपने कर्तव्य से भटक गये है या फिर पत्नी के अपार प्यार और बच्चों के भविष्य को सवांरने के बीच उनको भूल गये हैं, आपने जो अधिकार बच्चों और पत्नी को दिये है, क्या‍ ऐसे ही अधिकारों पर माता-पिता का हक नहीं है, यदि आप ये अधिकार माता पिता को नहीं दे सकते तो ठीक है,पर उनके द्वारा की गई आपकी परवरिश का इनाम तो उनको दे सकते हो, अब आप कहेंगें कि यह तो उनका कर्तव्य था जो उन्होंने हमारी परवरिश की पर आप ये क्यों भूल गये हो कि जिन्होंने आपके जिस्म को अपने खून और पसीना से सींचा है, आज उन्हीं के लिए उनके कर्तव्य की दुहाई दे रहे हो,क्या एक दिन उनकी सेवा करने का समय नहीं है आपके पास, सारी जिंदगी उन्होंने आपको ढेर सारा प्या‍र दिया और आपके ऊपर उन्होंने ढेर सारी खुशियां लुटाई आज वही माता पिता आपके प्यार भरे दो बोल के लिए लालायित हैं,सभ्य समाज में व़्रृद्धजनों के लिए व्रृद्धाश्रम खोलकर उनकी परवरिश में लगे कई सामाजिक संगठन इस बात प्रमाण जरूर देते हैं
साथ ही इस कहावत को भी चरितार्थ करते हैं कि ‘’इस सभ्य देश में बेटा बनकर सभी ने खाया है, परन्तु बाप बनकर खाने वाले लोगों में कुछ ही व्यक्ति शामिल हैं, क्या माता पिता का कसूर बस इतना है कि माँ ने अपने बच्चे को नौ माह गर्व में रखकर अपनी भूख से ज्यादा उसकी भूख पर ध्यान दिया, कभी गीले बिस्तर का एहसास भी नहीं होने दिया, रात-रात भर अपनी नींद को गुमनाम कर देने वाली उस मूरत का कसूर आखिर क्या है ये सभ्य समाज के समझ के परे है, ज्यादातर वृद्ध दम्पत्तियां के साथ उनके विधिक वारिसों के द्वारा ऐसा खेल खेला गया है, जिसे देखकर सभ्य समाज में रह रहे लोगों की रूह कॉप जाती है.
कानूनविदों की सलाह पर सरकार ने भले ही माता-पिता के भरण पोषण हेतु अधिनियम बना दिया हो, परन्तु देश में ज्यादातर वृद्ध दम्पत्तियां उनके विधिक वारिसों के द्वारा सताये हुए हैं, क्या सरकार, समाज और कई सामाजिक संगठनों को इसकी जानकारी है, यदि है तो क्या इन पर होने वाले जुल्मों से सभी अनजान हैं, या फिर जानते हुए अनजान बने हुए हैं, इसका कारण कुछ भी हो पर इन सब बातों से ये असलियत सामने जरूर आती होगी कि सरकार , समाज और सामाजिक संगठन में बैठे कई जिम्मेदार व्यक्तियों में बो चेहरे आपको जरूर मिल जायेंगे जिनके व़्रृद्ध माता-पिता ने वृद्धाश्रम की चारदीवारी को अपनी जीवन की तकदीर समझ लिया है, या फिर दर-दर की ठोकर खा रहें है, प्राचीन काल से ही सभ्य संस्क़्रति और पवित्र रिश्तों की मिसाल कायम करने के नाम से जाने जाने वाले इस भारत देश में क्या माता-पिता का रिश्ता ही जुल्म ढहाने को मिला है, भले ही भारत की सभ्य संस्कृति की दुहाई विदेशों में दी जा रही हो पर इस देश में पवित्र रिश्तों का गला घोंटने वालों की कमी नहीं है, आखिर क्यों?

 


लेखक परिचय :
अनिल कुमार पारा
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