क्यूँ करती हूँ. ऐसा अक़सर

सोचती हूँ, अक़्सर ही बैठी-बैठी 
कि क्यूँ करती हूँ मैं, तुमसे बातें, 
बातें जो एकतरफ़ा हैं, बेसिरपैर  à¤•à¥€ 
बातें कुछ अनसुनी और अनुत्तरित ही... 
जिनका कोई सरोक़ार ही नहीं 
तुम्हारी दुनिया से, बेमानी हैं वो, 
परे एकदम तुम्हारे अस्तित्व से 
बेमतलब सी, बेतुक़ी, पागलपन भरी बातें.....
 
इंतज़ार-सा रहता है, फिर भी 
कि कभी कुछ जवाब ही मिले, 
या बदले में कोई सवाल तो हो 
सफाइयाँ देनी पडें, झुँझलाकर 
कुछ पल खुशी के, या कभी उदास तो हों..... 
चाहती हूँ, कि मुस्कुरा दो उन्हें सुनकर 
या फिर झिड़क ही दो कभी 
जीकर देखें हम भी तो ज़रा 
जैसे जीते हैं बाकी ये सभी......
 
पर वक़्त भी कितनी मुश्किल 'शै' है 
कि इंसान से सब कुछ छीन लेती है, 
न हँसी, न चैन के एहसास बाकी 
समय रहते ये सब ही निगल लेती है..... 
दूर तलक़ फैला है आसमाँ, और 
उकेरे बादलों ने चित्र कई दफ़ा, 
देखा किए हम बदलती तस्वीरों को 
यूँ ही एकटक से, कभी कुछ भी न कहा......
आज़माना चाहते हैं, 'अज्ञात' से  
खुद को इस मर्तबा, हम भी इस क़दर 
देखें तो ज़रा, ये 'ज़िंदगी' अब हमें 
और कितने दर्द देती है................!!


लेखक परिचय :
प्रीति "अज्ञात"
फो.नं. ---
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