विदेशी निवेश और गरीबी के आंकडों की बाजीगरी

दोस्तों आज के भारत ने विश्‍व के पटल पर जो अपनी पहचान बनाई है, उसे देखकर हर भारत वासी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। और यह सोचने को मजबूर भी हो जाता है कि भारत जैसे विकासील देश ने वि‍श्‍व पट्ल पर अपना झण्डा स्थापित तो कर दिया है, पर भारत को अपनी गरीबी मिटाने में अभी कई दसक बीत सकते हैं। एक तरफ भारत, देश के प्रतिष्टित सरकारी संस्थानों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश की संभावना तलाश कर देश से वेरोजगारी समाप्त कर स्वाभलंबी बनाने हेतु प्रयासरत है, तो दूसरी तरफ भारत अपनी ही गरीबी के आंकड़ों से चिन्तित भी है। चौकाने वाले तथ्य तो यह भी है कि आंकड़ों के हिसाब से रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011-12 तक भारत में भारत की कुल जनसंख्या में से लगभग 29.5 फ़ीसदी लोग गरीब हैं। यानी हर 10 में से तीन व्यक्ति गरीब हैं। बहरहाल सबाल यह है कि क्या देश के प्रतिष्ठित सरकारी संस्थानों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश होने पर देश की कुल जनसंख्या में जो 29.5 फ़ीसदी लोग गरीब हैं उनके जीवन स्‍तर में कोई सुधार होगा ? या फिर विदेशी पूंजी निवेश की संभावना के बीच हर 10 में से तीन व्यक्ति जो गरीब हैं, उनमें और इजाफा होगा? यदि भारत के प्रतिष्ठित सरकारी संस्थानों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश की संभावना के बीच भारतीयों का जीवन स्तर सुधारने की भविष्य की योजना है। तो सबाल साफ है कि हमारे देश की सरकारें आखिर क्या कर रहीं हैं। हमारी नीतियों की रेखा किस ओर बढ़ रही है। निवेश की संभावनाओं के बीच गरीबों के जीवन स्तर में सुधार की बात उस आबादी के गले के नीचे नहीं उतर रही है, जो आबादी आज भी मूलभूत सुविधाओं सहित अपने जीवन स्तर में सुधार की वॉट जोह रही है। क्या हमारे देश में भविष्य की योजनाऐं पूर्ण रूप से देश के प्रतिष्ठित सरकारी संस्थानों में 100 प्रतिशत निवेश पर ठिकी हैं? या फिर नीतियों से जुडे प्रभावशाली लोग विदेशी निवेश में ही अर्थ की संभावना तलाश रहें है? बहरहाल यह समय ही बता सकता है। पर इस बीच भारतीयों के जीवन स्तर में सुधार पर जोर देना राजनीति के फंदों की वही लकीरें जान पढ़ती हैं, जो बड़े-बड़े मंचों पर तो दिखाई देती है, पर मंच से उतरते ही उस भीड़ के भागने पर उड़ने वाली धूल की धुन्ध में फिर कभी नजर नहीं आती। निश्‍चित रूप देश की कुल जनसंख्या में से 29.5 फ़ीसदी लोग गरीब होने के आंकडे़ राजनीति और कूटनीति के उन चहरों के लिए सुखदायी होगें जिनका सामाजिक सरोकार ऐसी आबादी से है ही नहीं। और होगा भी तो वे लोग समाज के उन लोगों में से होगें जो सम्पन्न वर्ग द्वारा ही उनके एहसानों के बीच दबे कुचले होंगें। क्या ऐसे वंचित वर्ग के जीवन स्तर में सुधार विदेशी निवेश से संभव होगा? या फिर 100 प्रतिशत विदेशी निवेश के पीछे भी बंदरबांट की योजना हैं? भारत की सरकारें देश में विदेशी पूंजी निवेश के कई हथकण्डे अपना रही है, पहल चाहे निर्रथक हो या इसके परिणाम सार्थक हों। पर दोनों स्थितियों में समय की बर्वादी की छाया झलक रही है।

क्या यह वही देश है जिसमें लोगों ने देश से ईस्ट इंडिया कम्पनी को खदेड़ दिया था। पर आज वही देश फिर देश में विदेशियों की जड़े मजबूत करने में लगा हुआ है। यह बात समझ के परे है। आजादी 67 सालों में देश के विकास हेतु क्या होता आया है। और अब क्या नया होने वाला है। ये तो राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ ही जानें पर देश की भोली भाली जनता इतना जरूर जानती है कि क्या स्वदेशी है और विदेशी। देश के सरकारी संस्थानों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश को तो सरकार ने हरी झण्डी दे दी है। पर क्या देश कुल जनसंख्या में से 29.5 फ़ीसदी जो गरीब आवादी है उनके जीवन स्तर पर सुधार हेतु विदेशी निवेश का कुछ अंश भी रिर्जव रख पायेगा। या फिर बंदरबांट की आहट को भी स्वार्थ के पल्लू में बांध कर रख लिया जावेगा। और फिर दफन हो जायेगीं गरीबों का स्तर सुधारने वाली बो बातें जो मंच पर चिल्ला-चिल्ला कर कहीं गई थी। देश जानता है कि कथनी और करनी में बहुत बड़ा अंतर होता है, ठीक है अंतर की खाई पट नहीं सकती है। तो क्या विदेशी निवेश की वह पूंजी जिस पर राजनीति के धुरिन्धरों की निगाहें टिकी हुई हैं, इस वंचित वर्ग के काम आ सकेगी? या फिर निवेश की वह पूंजी फिर एक बडे़ धोटाले को जन्म देगी? और फिर एक अधूरी कहानी किसी राजनीतिज्ञ को सलाखों के पीछे तक धकेल कर ले जायेगी? कई तरह के सबाल अपने आप जन्म ले लेतें है। एक तरफ सरकार विदेशों में छुपे काले धन को वापस लाने की पहल कर रही है,और एक तरफ देश के सरकारी संस्थानों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश को हरी झण्डी भी दे रही है। इस बीच विदेशी निवेश की वह पूंजी कहीं काले धन का दूसरा रूप तो नहीं जो भारत जैसे विकासील देश से तो चला गया पर विदेशों की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर फिर पुनः भारत में विदेशी निवेश के जरिऐ भारत लौट रहा। और सरकारें मुंह फाड़ के चिल्ला रहीं हैं कि हम भारत के सरकारी संस्थानों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश से देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर ला देगें। वेपटरी होती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के पीछे उनके इरादे नेक हों या अनेंक पर देश 29.5 फ़ीसदी आबादी जो आजादी के 67 सालों बाद भी गरीबी का ठप्पा लिए हुऐ है उनके जीवन स्तर में सुधार की भविष्य की योजनाऐं पूर्ण रूप से विदेशी निवेश पर टिकी होना यह बात भी समझ के परे नजर आती है। तो क्या आत्मनिर्भर होने के नारे मा़त्र दिखावा है। या फिर स्वरोजगार परख योजानाओं में खर्च पूंजी के हिसाब की बही उन राजनीतिज्ञों और कूटनीतिज्ञों के घरों की चार दीवारी में खुलती है जहां गरीबी के स्तर के सुधार की बात अपने आप दम तोड़ देतीं हैं। यदि हम विदेशी निवेश की बात छोड़ दे तो क्या इस वंचित वर्ग के जीवन स्तर में सुधार हेतु संचालित योजनाओं की पहुंच अभी उन तक नहीं है। तो फिर आंकडों की बाजीगरी आखिर किसे दिखाने के लिए है।


लेखक परिचय :
अनिल कुमार पारा
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