उफ़! ये दौड़ते पत्ते।

आकाश में बादलों का आना-जाना दोपहर की तपती धूप को कभी कम कभी ज्यादा कर रही थी। मैं घर के जानिब तेजी से कदम बढ़ा रही थी।चलते-चलते मेरी नजर उन दरख्तों के शाखों पे गई जो अभी-अभी नए पत्ते पा कर मानों मुस्कुरा रहे हों। ये नज़ारे आँखों को बड़े अच्छे लग रहे थे, दिल चाहा कुछ अपनी चाल धीमी कर लूँ। मगर अभी मंजिल दूर थी।
तभी हवा का तेज झोंका आया और सामने से ये सूखे पत्ते,जो कुछ à¤¦à¤¿à¤¨à¥‹à¤‚ पहले ही शाखों से अलग हुए थे, दौड़ते हुए गुजर गए। मेरे कदम कुछ ठहर कर उन सूखे पत्तों के आगे बढ़ने की जद्दो जहद देखने लगीं। मानों उन सूखे पत्तों में जान आ गई हों,सभी एक-दूसरे से आगे निकलने को बेचैन! मेरी नजर एक छोटे पत्ते पे गई जो अभी पीछे रह गया था, उसे भी एक हलके से हवा के झोंके ने पर लगा दिया।
ओह! क्या नजारा था। दरख्तों के हरे पत्तों में वो जीने की तड़प न दिखी, जो सूखे पत्तों ने एहसास करा दिया।
जीवन में खत्म कुछ नहीं होता। जब तक जीवन है, तब तक कुछ न ख़त्म होने की उम्मीदें बाकि रहती हैं।
मेरे दोस्त! जब भी तुम्हें कुछ न होने का एहसास सताने लगे, तो कुछ देर यूँही सड़क पे उन बेजान दौड़ते पत्तों को देखना, जो सिर्फ हवा के झोंखो के इंतजार में रहते हैं कि वो कब आये और उनमें जान डाल दे।
मन जब निराशा से सूखने लगे तो ये मत भूलना की कुछ हिस्सेदारी इन हवाओं में अपनी भी है.......


लेखक परिचय :
मनोज कुमार सैनी
फो.नं. -9785984283
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