जेएनयू

वीराना चारों तरफ
चीखता एकांत मेरे भीतर
इमारतों को छूते विमान
और
इनका असहनीय शोर
खो जाता भीतर
चीखते सन्नाटे में
यहाँ की सड़कें
इमारतें,
वृक्ष और इनके पत्ते
सब खामोश हैं
और यदि कोई चीखता है
तो वह है मेरा अपना मन।
महज़
इन तीन अक्षरों के लिए
गँवा रहा हूँ
 à¤œà¥€à¤µà¤¨ के करोड़ों खूबसूरत पल
अपने लम्बे से इंतजार में
इस खामोश संसार में।
वेदना, व्यथा यहाँ मित्र हैं भले
किन्तु संप्रेषण हेतु
सिवाए तन्हाई के
यहाँ कुछ नहीं।
यहाँ नज़रे
सड़कों में नहीं धंस जाती है
और न ही
खूबसूरत
गहन बूटों में उलझ पाती है
क्षणों में
असंख्य कोस पहुँचने वाला
गतिशील मन
हो चुका है जड़
अभी तक है वहीं à¤ªà¤°
जहाँ थे हम एक साथ
अंतिम बार।
शिराएं ढीली हो रही हैं
इस एकांत से
आँखें गीली हो रही हैं
मानसिक सुखद पलों के
खोए हुए वृतांत से।
क्षणभर में
प्रतिपल जलने वाला तन
आज बेसुध है खुद ही से
प्रचण्ड ज्वालाओं की लपटें
उठती तो आज भी है मगर
वो आनंद अब न रहा
अब इनका अर्थ बदल गया है।
यहाँ का अन्न
मन स्वीकार नहीं करता
महज़
चंद सुखद स्मृतियों से भरे पल से 
यह प्यार करता है।
यहाँ की रौशनी
सब पाना चाहते हैं
मगर
इसके भीतर की अंधियारी खामोशी
मैं जानता हूँ।
माँ,
सिर्फ इन तीन अक्षरों से जुड़ने के लिए
मुझ संग तुम्हे भी
यहाँ का एकांत सहना होगा।


लेखक परिचय :
बलजीत सिंह
फो.नं. -8587085191
ई-मेल - [email protected]
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