ख्वाब

बहुत ख्वाब देखे

तितलियों से ज्यादा रंगीन,

अंधी रातों में

झुरमुट-से निकलते हैं

और मेरे मन की स्याह गलियों को

चुंधियाते फिरते।

अंधियारे सन्नाटों में

झींगुर के शोर में

अक्सर ये ख्वाब उगते थे।

बड़ा तजुर्बा था इन्हें

संकरी पगडंडियों पे चलते

फिसल कर कीचड़ में जब गिरते

मेरे ख्वाब

खुद पर ही हँसते थे।

कभी थकते नहीं हैं

सलीकों में बंधे से

चुपचाप निकलते हैं

बड़े-बड़े खेतों के मध्य से

नदी तक पहुँचते हैं

अँधेरे में गुमी, गहरी,

ठहरी नदी की ठंडी

बेजान सतह को मलते हैं

मेरे ख्वाब आँखें मूँद

अंधी रातों में

पानी पर चलते हैं।

कभी हताश नहीं होते

गीली मिटटी से लिबड़े

मुझको महकाते हैं

कभी सूखी रेत बनकर

हवाओं संग

कोसों दूर उड़ जाते हैं

मेरे ख्वाब

रोज़ मेरी आँखों से डुल जाते हैं।


लेखक परिचय :
बलजीत सिंह
फो.नं. -8587085191
ई-मेल - [email protected]
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