प्रतिबिम्ब

पंछी अपने-अपने घोंसलों में दुबके हुए, कुछ अलसायी, रंगीन नावें अब तक किनारों के दामन से लिपटी हुईं । वाहनों की चिल्लपों, सड़कों पर आवाजाही में भी थोड़ा वक़्त है अभी !  à¤•à¥à¤› ही पलों में ये नज़ारा बदल जाएगा । झील से सटी उन् बेंचों पर नए जोड़े भविष्य की कल्पनाओं में खो जाएंगे , कुछ पंछी चहचहाएंगे, कोई बच्चा अपने माता-पिता से बोटिंग की ज़िद में पैर पटकता हुआ वहीँ फ़ैल जायेगा और कुछ किनारे संग चुपचाप घिसटते चले जाएंगे। कोई मायूस चेहरा लिए गुस्से में एक पत्थर इसी झील के सीने पे दे मारेगा और फिर अपनी पलकों से एक मोती इसमें  à¤¹à¥Œà¤²à¥‡-से गिरा  à¤¦à¥‡à¤—ा, अचानक ही वो पानी में  à¤¬à¤¨à¤¤à¥‡ हुए गोलों को गिनने में व्यस्त हो , अपने मन को झूठी तसल्ली देने लगेगा। 
धुंआँ बस बिखरने को है , ज़िन्दगी निखरने को है..... क्यों न तब तक चुपके से झाँक लूँ मैं मन के अंदर और देख लूँ इस पारदर्शी दर्पण में प्रतिबिम्ब मेरा। एक बादल ने दूसरे से कहा और दोनों ठिलठिलाकर हंस दिए  !
* उदयपुर की एक खुशनुमा सुबह ,फतेहसागर लेक पर !


लेखक परिचय :
प्रीति "अज्ञात"
फो.नं. ---
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