गज़ल- कुछ तो है कहीं

कुछ तो है कहीं, ये जो थोड़ा प्यार-सा है
नशा है तेरा, चाहत या इक ख़ुमार-सा है

मिला करता है मचलकर रोज ही तू मुझसे
रहता बेवक़्त फिर भी तेरा इंतज़ार-सा है

न बीता कोई भी लम्हा इस तरह पहले
जिस तरह दिल अब मेरा बेक़रार-सा है

महसूसा तुझे मुझमें ही कहीं हर मर्तबा
बहता मेरी रग-रग में तेरा दीदार-सा है

छू गयी आकर कुछ ऐसे ये दस्तक तेरी
इन साँसों में ही इस जीस्त का दरबार-सा है

तू ही सुकून, है ख़्वाहिश, चैनो-अमन मेरा
मेरी हर नब्ज़ को समझता, चारागार-सा है


लेखक परिचय :
प्रीति "अज्ञात"
फो.नं. ---
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